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रविवार, दिसंबर 26, 2010

रमिया काकी !

( हमारे गाँव की रमिया काकी जो पुरे गाँव में सबके दुःख -सुख की साथी थी,  मगर अपने ही घर में दर- बदर . उनके ऊपर मैंने ये कविता ८ मई  १९९७ को लिखी थी.............)

तुमने भी तो काटा था बनवास
मगर किसी ने भी तो
नहीं कहा सीता सा तुम्हें
गलाया यौवन को
जवानी को दहलीज पर
किस तप से कम था
तुम्हारा वो तप
मगर किसी ने भी तो नहीं
अहिल्या सा कहा
तुमने अपने खून की
एक- एक बूँद को
निंचोड़ डाला था
बनाकर पसीना
अपने लिए नहीं
सिर्फ दूसरों को
जिंदा रखने के लिए
हार गया था यमराज
तुम्हारे सामने भी
मगर किसी ने भी तो नहीं
सावित्री सा कहा
मौत को जीता तुमने
अपने लिए नहीं
वरना औरों के लिए
मगर तुम भुला दी गयी
हक़दार कोई और हो गया
तुम्हारे वजूद का. . 
                      ( उपेन्द्र ' उपेन ' )

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कविता..बधाई.

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  2. मैंने भी तो स्कूल में क्रिसमस मनाया..बड़ा मजा आया.
    सभी लोगों को क्रिसमस की ढेर सारी बधाई.

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  3. मगर तुम भुला दी गयी
    हक़दार कोई और हो गया
    तुम्हारे वजूद का. ...रमिया काकी की व्यथा को शब्द देती मार्मिक कविता.

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  4. भाई मजा आ गया अन्सुवो के साथ में

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  5. उपेन जी ने तो वाकई बहुत डूबकर लिखा. रमिया काकी जैसे उदहारण अब भी समाज में दिख जाते हैं, पर व्यथा वहीँ की वही है...

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  6. बढ़िया कविता उपेन जी, बधाई।

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  7. रमिया काकी जैसी कितनी ही हैं समाज में आपने उनकी व्यथा बेहतरीन ढंग से चित्रित की है.

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  8. @ पाखी बिटिया
    @ मु. गाजी जी
    @ तारकेश्वर भाई जी
    @ सोमेश जी
    @ आकांक्षा जी
    @ शिखा जी
    आप सभी लोंगों का हौसला बढ़ने के लिये आभार.

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  9. रमिया काकी की व्यथा बेहतरीन ढंग से चित्रित की है| आभार|

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  10. बहुत सुन्दर शब्द-चित्र...बेहतरीन कविता..बधाई.

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