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मंगलवार, फ़रवरी 22, 2011

आजमगढ़ : और भी पहचान है मेरी .....

1974 के मार्च महीने की एक तारीख...पटना जाने वाली तमाम रेलगाड़ियां निरस्त कर दी गई हैं। 18 मार्च 1974 को नौजवानों ने पटना विधानसभा के घेराव का ऐलान कर रखा है। इसकी अगुआई जेपी को करनी है। घेराव को नाकामयाब बनाने के लिए बिहार के साथ ही केंद्र सरकार भी जुट गई है। इस घेराव में तब का एक क्रांतिकारी समाजवादी नेता भी शामिल होने को तैयार है। किसी तरह वाराणसी पहुंच गया है। रेलगाड़ियां बंद कर दी गई हैं। इसी बीच पता चलता है कि कोई रेलगाड़ी मुगलसराय होते हुए पटना जा रही है। क्रांतिकारी नेता पर पुलिस की निगाह है। उसके गिरफ्तार होने का खतरा है। लिहाजा काशीहिंदू विश्वविद्यालय के कुछ छात्र नेता रणनीति बनाते हैं। तय होता है कि ये नेता बुनकर के तौर पर जाएगा। लुंगी कुर्ता और गोलटोपी पहने कुछ लोगों का एक ग्रुप वाराणसी के काशी स्टेशन पर पहुंचता है। पुलिस होने के बावजूद ये नेता अपने हाथों बुनी साड़ियों का बंडल लिए ट्रेन में सवार हो जाता है।
18 मार्च 1974 को पटना में जो हुआ – अब इतिहास है। इसी घेराव में इनकम टैक्स चौराहे पर जेपी पर पुलिस ने जमकर लाठियां बरसाईं। इन लाठियों की धमक इतनी दूर तक सुनाई दी कि इंदिरा गांधी की सर्वशक्तिमान सरकार हिल गई। यहां अब बता देना जरूरी है कि बुनकर के भेष में पटना गए वे नेता थे जार्ज फर्नांडिस और उन्हें स्टेशन पर चढ़ाने आए थे आज के कांग्रेस के प्रवक्ता मोहन प्रकाश। जो तब बीएचयू छात्रसंघ के प्रभावी नेता थे। जिन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश की खाक छानी है – उन्हें पता है कि आजमगढ़ से लेकर मऊ तक पहले हथकरघे का जाल बिछा हुआ था। गांव-गांव में दरी, चादर और गमछे के साथ ही बनारसी साड़ियां बुनीं जाती थीं। इन्हें लेकर एक खास ड्रेस में लोग गांव-गांव बेचने के लिए निकलते थे। तब उन पर कोई सवाल नहीं उठाता था। लेकिन इसी आजमगढ़ के सरायमीर के अबू सलेम की अपराध की दुनिया में चर्चा क्या बढ़ी – पूरा आजमगढ़ अपराधियों और आतंकवाद का गढ़ नजर आने लगा है।
लेकिन आजमगढ़ की यही पहचान नहीं है। आज राष्ट्रीय क्षितिज पर जब भी हिंदू-मुस्लिम समभाव की बात की जाती है – इस्लाम के विद्वान के तौर पर मौलाना वहीदुद्दीन खान के बिना पूरी नहीं होती। वे वहीदुद्दीन साहब भी इसी आजमगढ़ में पले – बढ़े हैं। कैफी आजमी ने उर्दू शायरी की दुनिया में जो नए प्रतिमान खड़े किए, सिनेमा के गीतों को नया अंदाज दिया – वे इसी आजमगढ़ के मेजवां से निकले थे। चंद सिरफिरों के चलते आज आजमगढ़ की एक पूरी पीढ़ी को देशद्रोही और आतंकवादी का तमगा दिया जा रहा है – ऐसे लोगों को जानकर हैरत होगी कि कैफी आजमी ने अपनी जिंदगी के आखिरी साल अपनी माटी – अपनी हवा के बीच मेजवां में ही गुजारे। जबकि देश के सपनीले शहर मुंबई में उनके पास जिंदगी के वे सारे साजोसामान मौजूद थे – जिसकी खोज में आज हर कोई हलकान हुए जा रहा है। और एक बार हासिल होते ही वह अपनी माटी की महक को भूल जाना चाहता है। कैफी उन लोगों में से नहीं थे।
आज हैरी पोटर की लेखिका जेके रॉलिंग की दुनिया में खासी चर्चा है। बच्चों की लेखिका के तौर पर विख्यात रॉलिंग को जानने वालों की कमी नहीं है। लेकिन कितने लोगों को सनीमासीन खान का नाम पता है। बच्चों के लेखक के तौर पर दुनिया भर में विख्यात इस लेखक की कृतियां मलय, पश्तो, अरबी से लेकर तमाम पश्चिमी भाषाओं में हो चुका है। मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाला शायद ही कोई देश हो – जहां खान की किताबों की प्रदर्शनी ना लगी हो।
आजमगढ़ की स्थापना 1665 में एक दबंग जमींदार आजमखान ने की थी। दिलचस्प बात ये है कि यह एक हिंदू जमींदार की मुस्लिम पत्नी का बेटा था। इतिहासकारों के मुताबिक विक्रमजीत गौतम राजपूत था। मेहनगर की मुस्लिम पत्नी से उसके दो बच्चे थे। दूसरे बच्चे अजमत ने किला बनाया। जो आज भी आजमगढ़ में अजमत के किले के तौर पर विख्यात है। हिंदू पिता और मुस्लिम पत्नी की संतान आजमगढ़ में दंगों का कोई गहरा इतिहास नहीं रहा है। दोनों परिवारों का ही संस्कार था कि यहां गंगजमुनी संस्कृति की धारा लगातार बहती रही। आजमगढ़ में राष्ट्रवाद किस कदर हिलोरें ले रहा था – इसकी मिसाल 1857 का संग्राम भी है। आजमगढ़ की धरती पर ही वीर कुंवर सिंह ने अंग्रेजों के दांत खट्टे किए थे। इसी दौर में यहां एक बड़े इस्लामिक विद्वान शिबली नोमानी ने यहां की धरती के जरिए इस्लामिक दुनिया में अमिट छाप छोड़ी। सर सैय्यद अहमद खां के कभी सहयोगी रहे शिबली नोमानी इतिहास, इस्लाम, दर्शन और सूफीवाद के मशहूर मर्मज्ञ थे। उन्होंने मक्का तक हज की यात्रा की और मोहम्मद साहब से जुड़ी चीजों का संग्रह किया। इसे वे भले ही नहीं लिख पाए – लेकिन बाद में उनके उत्तराधिकारी सैय्यद सुलेमान नदवी ने लिखा। जिसे इस्लाम की दुनिया में आज भी खासे आदर के साथ लिया जाता है। शिबली के योगदान को आजमगढ़ ने आज भी शिबली कॉलेज के रूप में शिद्दत से याद रखा है। आजमगढ़ में उच्च शिक्षा के इस अहम केंद्र में ना सिर्फ मुस्लिम – बल्कि हिंदू छात्र भी अपना भविष्य संवारने का काम कर रहे हैं। शिबली की ही देन है कि आजमगढ़ कभी शिया शिक्षा का अहम केंद्र हुआ करता था। यहां दुनिया भर से लोग इस्लाम की शिया तहजीब का अध्ययन करने आते थे। इस धरती ने अमीन अहसान इस्लाही और जफरूल इस्लाम जैसे इस्लाम के जाने-माने विद्वान भी पैदा किए हैं तो इतिहासकारों की पंक्ति में आदर के साथ लिया जाने वाला नाम इश्तियाक अहमद जिल्दी भी यहीं के हैं और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं। इसी धरती के सपूत सम्सुर्रहमान फारूकी को भी भूलना कठिन है।
13 सितंबर के दिल्ली बम धमाकों के बाद आजमगढ़ एक बार फिर पूरी दुनिया की नजर में आ गया है। पिछले कुछ साल से आजमगढ़ की पहचान के प्रतीक बने हैं माफिया सरगना अबू सलेम। जयपुर और अहमदाबाद धमाके के मास्टरमाइंड के तौर पर जब से अबू बशर की गिरफ्तारी हुई है – पहचान की ये धारा और पुख्ता हुई। रही- सही कसर 13 सितंबर के धमाके में मारे गए आतिफ और साजिद के साथ ही सैफ की गिरफ्तारी ने पूरी कर दी है। इसके बाद आजमगढ़ को सिर्फ और सिर्फ आतंकवादियों के गढ़ के तौर पर पहचान दी गई है। यहां के ब्लैक पॉट्री नाम से दुनियाभर में मशहूर उर्दू पुस्तकालय के उल्लेख के बिना तो ये चर्चा अधूरी रहेगी। माना जाता है कि उर्दू अदीब की दुनिया में इस पुस्तकालय को काफी आदर के साथ देखा जाता है।
हिंदी के पहले महाकाव्य रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ का नाम तो सभी जानते हैं। लेकिन इसी धरती के श्यामनारायण पांडे थे – जिन्होंने महाराणा प्रताप और अकबर के युद्ध को विषय बनाकर हल्दीघाटी नामक खंडकाव्य लिखा। राणा प्रताप के घोड़े चेतक का जो वर्णन उन्होंने किया है – उसे पढ़कर आज भी रोमांच हो जाता है। आजमगढ़ के मेंहनगर के विसहम में दाऊद इब्राहिम की रिश्तेदारी की जमकर चर्चा हो रही है। हाजी मस्तान की रिश्तेदारी को लेकर भी आजमगढ़ चर्चा में है। लेकिन लोग ये भूल गए हैं कि इसी जिले में हरिहरपुर नाम का एक ब्राह्मणबहुल गांव है – जहां तबला सम्राट गुदई महाराज की ससुराल थी। दूसरे तबला उस्ताद किशन महाराज और ठुमरी की विख्यात गायिका गिरिजा देवी की भी रिश्तेदारी इस गांव में है। आजमगढ़ में कला और संस्कृति की ये धारा ही रही है कि लोग फिल्म और टेलीविजन की दुनिया में भी जमकर नाम और दाम कमा रहे हैं। जीटीवी के मशहूर रियलिटी शो सारेगामापा के प्रोड्यूसर गजेंद्र सिंह और फिल्म निर्देशक राजेश सिंह भी इसी धरती के वासी हैं। राहुल सांकृत्यायन इसी जिले के पंदह के निवासी थे। जिनके दर्शन-दिग्दर्शन का लोहा पूरी दुनिया ने माना।
टाटा की नैनो कार को लेकर उत्सुकता अभी थमी नहीं है। पश्चिम बंगाल के सिंगूर से लेकर उत्तरांचल के पंतनगर तक इस कार की चर्चा है। लेकिन कितने लोगों को पता है कि आजमगढ़ के सत्रह साल के एक बच्चे चंदन ने दो सीटों वाली कार पहले ही बना ली है। जो एक लीटर पेट्रोल में चालीस किलोमीटर तक चल सकती है।
आजमगढ़ की इस गड्डमड्ड होती पहचान पर सबसे बेहतरीन टिप्पणी आतंकवाद से लोहा लेते रहे बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक प्रकाश सिंह की है। प्रकाश सिंह इसी धरती के बेटे हैं। उनका कहना है कि सरायमीर, निजामाबाद, खैराबाद, मुबारकपुर, बिलरियागंज, मोहम्मद खान और अतरौलिया से हजारों बच्चे दिल्ली, मुंबई, अलीगढ़, हैदराबाद और लखनऊ में पढ़ाई के साथ ही रोजी-रोजगार के लिए गए हैं। देश विरोधी ताकतें उन्हें बहका सकती हैं। लेकिन इसका माकूल जवाब इस पूरे इलाके को बदनाम करने की बजाय ऐसे मुकम्मल इंतजाम होने चाहिए – ताकि यहां के बच्चे बहकावे में आकर देशविरोधी ताकतों के हाथों का खिलौना ना बनें।
ये काम आजमगढ़ की मूल पहचान को बिगाड़कर तो नहीं ही किया जाना चाहिए। अन्यथा इससे जो नुकसान होगा – उसकी तासीर दूर और देर तक महसूस की जाती रहेगी।

साभार : उमेश चतुर्वेदी, balliabole

3 टिप्‍पणियां:

  1. आजमगढ़ सबसे प्यारा...

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  2. दुर्भाग्यवश आजमगढ़ की पुरातन गरिमा से लोग खिलवाड़ कर रहे हैं...इस ओर ध्यान देने की जरुरत है.

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  3. सच, आजमगढ़ की असली पहचान इस आतंकवाद के तमगे के बीच दब सी गयी है. आजमगढ़ के गौरवपूर्ण अतीत को इस लेख में अच्छे ढंग से उलेखित किया गया है. उमेश चतुर्वेदी जी वाकई बधाई के पात्र है.

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