खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।' अल्लामा इकबाल के इस शेर का इस्तेमाल अमूमन खास लोगों की हौसला-आफजाई के लिए होता है। यही शेर लाहीडिहां बाजार भटवां की मस्जिद में भी एक पान की दुकान पर सुनने को मिला। तभी सुनने वालों में से ही किसी ने पूछ लिया- इसका कद्रदां कौन है? सुनाने वाले ने भी देरी नहीं की और एक सामान्य कद-काठी के दाढ़ी वाले बंदे को पकड़ लाया और बोला-ये हैं शेर के असली कद्रदां-तोआं गांव के शकील भाई।
तोआं आजमगढ़ जिले के सरायमीर थाने का एक गांव है। सरायमीर का जिक्र पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर इस रूप में होता रहा है कि यहां बम धमाकों के सबसे ज्यादा आरोपी पकड़े गये हैं। भटवां की मस्जिद पर मिले लोग कहते भी हैं कि 'आजमगढ़ में आतंक की तो चर्चा सब जगह है, लेकिन इसी जिले में शकील भाई ने अकेले दम पर एक पुल का निर्माण, दूसरे के आधे से अधिक का काम पूरा कर और तीसरे की बनाने की योजना तैयार कर जो साहस दिखाया है उसकी चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी दिखा रही है।'
बगैर किसी सरकारी सहायता के सिर्फ चंदा मांगकर पिछले दस वर्षों के अकथ प्रयास से शकील भाई ने जो कर दिखाया है, उसे सुनकर एक दफा आश्चर्य लगता है। चंदा मांग कर धार्मिक स्थल और स्कूल बनाने की परंपरा तो रही है लेकिन पुल भी चंदा मांग कर बन सकता है, ऐसा सोचना मुश्किल लगता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश के सांप्रदायिक सौहार्द वाले जिलों में हमेशा अव्वल रहे आजमगढ़ में फिर एक बार गंगा-जमुनी संस्कृति को हंगामा मचाये बिना ही शकील भाई ने समृध्द किया है।
जिला मुख्यालय से मात्र 40 किलोमीटर की दूरी पर मगही नदी पर बने इस पुल को शकील सामाजिक सहयोग की देन मानते हैं। लगभग 50 गांवों को आपस में जोड़ने वाले इस पुल ने दर्जन भर गांवों की जिला मुख्यालय और थाने से दूरियों को कम किया है। पुल ही बनाने की योजना शकील ने क्यों हाथ में ली ? इसके पीछे एक दिल को छू देने वाली घटना है। लेकिन इससे पहले शकील मीडिया को लेकर शिकायत करते हैं कि 'जिला-जवार के दलालों की खबरों को तो पत्रकार बंधु तवज्जो देते हैं मगर अच्छे कामों पर एक बूंद स्याही खर्च करने में कोताही क्यों बरतते हैं। खुफिया और सरकारी बयानों को सच की तरह पेश करने वाली मीडिया ने बाहर वालों के लिए कुछ ऐसी बना दी है कि लोग मानने लगें कि यहां के मुसलमानों में ही कुछ नुक्स है।'
जिस तरह पुल अपने ऊपर से गुजरने वालों की जाति-धर्म से मतलब नहीं रखता, वैसे ही शकील भाई भी सिर्फ इंसानी पहचान के ही पैरोकार हैं। टौंस नदी पर बन रहे पुल का काम कराने में व्यस्त शकील भाई से हुई मुलाकात में पूछने पर कि आपने पुल बनाने की शुरूआत कैसे की? वे कहते हैं, 'वैसे तो यह किस्सा हर कोई बता सकता है लेकिन मेरे साथ बस इतना हुआ कि मैं उस किस्से का होकर रह गया. मैंने उससे मोहब्बत कर ली।'
बरसात का मौसम था और मगही नदी उफान पर थी। सरायमीर जाने का एकमात्र आसान रास्ता नदी पार करना ही था। साल के बाकी नौ महीनों में तो बच्चे चाह (बांस का पुल) पार कर स्कूल जाया करते थे लेकिन बरसात में पार करने का जरिया नांव ही हुआ करती थी। उस दिन भी बच्चे इस्लहा पर पढ़ने जा रहे थे। नांव में बारह बच्चे सवार थे और नांव नदी के बीचो-बीच उलट गयी। सुबह का समय होने की वजह से उसपार जाने वालों की तादाद थी इसलिए बारह में से ग्यारह बच्चे बचा लिए गये, लेकिन शकील के गांव के सैफुल्लाह को नहीं बचाया जा सका। उस समय षकील सउदी अरब में नौकरी कर रहे थे। शकील उन दिनों को याद कर बताते हैं, 'जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे बेचैनी छा गयी। मुझे लगता था कि कोई मुझसे हर रोज कहता है कि गांव जाते क्यों नहीं।'
बकौल शकील, 'उसके छह महीने बाद जब मैं घर आया तो मानो किसी ने कहा हो कि क्यों नहीं एक पुल ही बनवा देते, लेकिन मेरी मासिक आमदनी कुछ हजार रूपये थी और पुल बनाने के लाखों रूपये वाले काम को हाथ में लेना संभव नहीं लगा। लोगों से बात करने, सुझाव लेने और आत्मविश्वास हासिल करने में दो साल और लग गये। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर अकेले ही चंदा मांगना शुरू किया। बहुतों ने कहा कि कमाने-खाने का धंधा है। चीटर तक कहा, लेकिन मैंने न किसी का जवाब दिया और न ही आरोपों से आहत हुआ। मुझे अपनी नियत पर भरोसा था। अल्लाह को गवाह मानकर पुल बनाने की योजना पर आगे बढ़ गया। यहां आसपास के गांवों से सहयोग लेने के बाद मुंबई, दिल्ली, गुजरात ही नहीं दुबई जाकर भी मैंने चंदा जुटाया।'
चंदा के अनुभवों को साझा करते हुए शकील से पता चला कि कुछ ने दिया तो कुछ ने दुत्कार दिया। मददगारों में सबसे अधिक मदद गुजरात के वापी शहर के रहने वाले 85 वर्षीय हाजी इसरानुलहक ने की और कर रहे हैं। शकील के शब्दों में कहें तो 'हाजी साहब को तहेदिल से शुक्रिया करता हूं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर भरपूर मदद की। साथ ही मैं इंजीनियर संजय श्रीवास्तव की चर्चा करूंगा जो कि मेरे दोस्त भी हैं, जिन्होंने एक पाई लिये बगैर हमेशा सहयोग दिया।'
तोआं आजमगढ़ जिले के सरायमीर थाने का एक गांव है। सरायमीर का जिक्र पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर इस रूप में होता रहा है कि यहां बम धमाकों के सबसे ज्यादा आरोपी पकड़े गये हैं। भटवां की मस्जिद पर मिले लोग कहते भी हैं कि 'आजमगढ़ में आतंक की तो चर्चा सब जगह है, लेकिन इसी जिले में शकील भाई ने अकेले दम पर एक पुल का निर्माण, दूसरे के आधे से अधिक का काम पूरा कर और तीसरे की बनाने की योजना तैयार कर जो साहस दिखाया है उसकी चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी दिखा रही है।'
बगैर किसी सरकारी सहायता के सिर्फ चंदा मांगकर पिछले दस वर्षों के अकथ प्रयास से शकील भाई ने जो कर दिखाया है, उसे सुनकर एक दफा आश्चर्य लगता है। चंदा मांग कर धार्मिक स्थल और स्कूल बनाने की परंपरा तो रही है लेकिन पुल भी चंदा मांग कर बन सकता है, ऐसा सोचना मुश्किल लगता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश के सांप्रदायिक सौहार्द वाले जिलों में हमेशा अव्वल रहे आजमगढ़ में फिर एक बार गंगा-जमुनी संस्कृति को हंगामा मचाये बिना ही शकील भाई ने समृध्द किया है।
जिला मुख्यालय से मात्र 40 किलोमीटर की दूरी पर मगही नदी पर बने इस पुल को शकील सामाजिक सहयोग की देन मानते हैं। लगभग 50 गांवों को आपस में जोड़ने वाले इस पुल ने दर्जन भर गांवों की जिला मुख्यालय और थाने से दूरियों को कम किया है। पुल ही बनाने की योजना शकील ने क्यों हाथ में ली ? इसके पीछे एक दिल को छू देने वाली घटना है। लेकिन इससे पहले शकील मीडिया को लेकर शिकायत करते हैं कि 'जिला-जवार के दलालों की खबरों को तो पत्रकार बंधु तवज्जो देते हैं मगर अच्छे कामों पर एक बूंद स्याही खर्च करने में कोताही क्यों बरतते हैं। खुफिया और सरकारी बयानों को सच की तरह पेश करने वाली मीडिया ने बाहर वालों के लिए कुछ ऐसी बना दी है कि लोग मानने लगें कि यहां के मुसलमानों में ही कुछ नुक्स है।'
जिस तरह पुल अपने ऊपर से गुजरने वालों की जाति-धर्म से मतलब नहीं रखता, वैसे ही शकील भाई भी सिर्फ इंसानी पहचान के ही पैरोकार हैं। टौंस नदी पर बन रहे पुल का काम कराने में व्यस्त शकील भाई से हुई मुलाकात में पूछने पर कि आपने पुल बनाने की शुरूआत कैसे की? वे कहते हैं, 'वैसे तो यह किस्सा हर कोई बता सकता है लेकिन मेरे साथ बस इतना हुआ कि मैं उस किस्से का होकर रह गया. मैंने उससे मोहब्बत कर ली।'
बरसात का मौसम था और मगही नदी उफान पर थी। सरायमीर जाने का एकमात्र आसान रास्ता नदी पार करना ही था। साल के बाकी नौ महीनों में तो बच्चे चाह (बांस का पुल) पार कर स्कूल जाया करते थे लेकिन बरसात में पार करने का जरिया नांव ही हुआ करती थी। उस दिन भी बच्चे इस्लहा पर पढ़ने जा रहे थे। नांव में बारह बच्चे सवार थे और नांव नदी के बीचो-बीच उलट गयी। सुबह का समय होने की वजह से उसपार जाने वालों की तादाद थी इसलिए बारह में से ग्यारह बच्चे बचा लिए गये, लेकिन शकील के गांव के सैफुल्लाह को नहीं बचाया जा सका। उस समय षकील सउदी अरब में नौकरी कर रहे थे। शकील उन दिनों को याद कर बताते हैं, 'जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे बेचैनी छा गयी। मुझे लगता था कि कोई मुझसे हर रोज कहता है कि गांव जाते क्यों नहीं।'
बकौल शकील, 'उसके छह महीने बाद जब मैं घर आया तो मानो किसी ने कहा हो कि क्यों नहीं एक पुल ही बनवा देते, लेकिन मेरी मासिक आमदनी कुछ हजार रूपये थी और पुल बनाने के लाखों रूपये वाले काम को हाथ में लेना संभव नहीं लगा। लोगों से बात करने, सुझाव लेने और आत्मविश्वास हासिल करने में दो साल और लग गये। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर अकेले ही चंदा मांगना शुरू किया। बहुतों ने कहा कि कमाने-खाने का धंधा है। चीटर तक कहा, लेकिन मैंने न किसी का जवाब दिया और न ही आरोपों से आहत हुआ। मुझे अपनी नियत पर भरोसा था। अल्लाह को गवाह मानकर पुल बनाने की योजना पर आगे बढ़ गया। यहां आसपास के गांवों से सहयोग लेने के बाद मुंबई, दिल्ली, गुजरात ही नहीं दुबई जाकर भी मैंने चंदा जुटाया।'
चंदा के अनुभवों को साझा करते हुए शकील से पता चला कि कुछ ने दिया तो कुछ ने दुत्कार दिया। मददगारों में सबसे अधिक मदद गुजरात के वापी शहर के रहने वाले 85 वर्षीय हाजी इसरानुलहक ने की और कर रहे हैं। शकील के शब्दों में कहें तो 'हाजी साहब को तहेदिल से शुक्रिया करता हूं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर भरपूर मदद की। साथ ही मैं इंजीनियर संजय श्रीवास्तव की चर्चा करूंगा जो कि मेरे दोस्त भी हैं, जिन्होंने एक पाई लिये बगैर हमेशा सहयोग दिया।'
शकील यह बताना नहीं भूलते कि हाजी साबह ने कभी इसको रत्तीभर भी भुनाने की कोशिश नहीं की। आग्रह करके हम गांव वालों ने उन्हीं से बन चुके पुल का शिलान्यास भी कराया और अब इरादा है कि उस पुल का नाम सैफुल्ला के नाम पर रखें, जिसकी नदी में डूबने से मौत हो गयी थी। राजापुर गांव के मतीउद्दीन बताते हैं कि 'सैफुल्ला रिश्ते में सलीम का कुछ नहीं लगता था फिर भी उसने जो संकल्प लेकर किया उससे हजारों सैफुल्लाओं के परिजन हमेशा शकील को सलाम करेंगे, दुआएं देंगे।'
सामाजिक दायरे के अलावा क्या किसी और ने मदद की? इस पर शकील हंसते हुए कहते है,'सरकारी विभागों से हमने कई दफा मदद की दरख्वास्त की। सांसदों-विधायकों के यहां गुहार लगाने गये। प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव के यहां भी गांववाले लेकर गये, पर बात नहीं बनी। इतना ही नहीं, मेरी आर्थिक और पारिवारिक औकात जानने के बाद तो मौके पर जगहंसाई भी करते थे। समाज के संभ्रात लोगों का यह रवैया देखकर मन भारी और थका हुआ महसूस करता था। कई दफा लगा कि पीछे हट जायें। लेकिन हताशा का विचार आते ही बचपन से जवानी तक सुने साहस के किस्से-कहानियों से मुझे बल मिलता था। अपने बुजुर्गों से सुने उन साहसिक कहानियों की यादों के साथ, वह पल भी याद कर मन ख़ुशी से भर उठता था जब कहानियों के नायक या नायिका लाख मुश्किलों के बावजूद संघर्ष के मुकाम तक पहुंचते थे।'
शकील के इस उम्दा प्रयास में गौर करने लायक बात यह है कि जिस समाज ने एक समय में इन्हें दुत्कारा, उसी समाज के कुछ लोगों ने शकील भाई की मदद भी की और आगे चलकर हाथों-हाथ लिया। इसलिए शकील कहते भी हैं कि 'पुल निर्माण सामाजिक सहयोग के बदौलत ही संभव हो पाया।' लगभग 60 लाख से ऊपर धनराशी खर्च हो चुकी है। यह पूंजी एक ऐसे आदमी ने जुटायी, जिसका न कोई सामाजिक रूतबा था और न ही कोई पारिवारिक रसूख। उसके पास ढंग का रोजगार तक नहीं था।
द पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित और जनज्वार से साभार
शायद ऐसे ही लोगों से समाज ज़िंदा है। शुभकामना। कभी ज़रूर मिलूंगा।
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत बेहतरीन जानकारी दी आपने... शकील भाई जैसे लोगो को प्रोत्साहन मिलना चाहिए... उनके जज्बे को सलाम... मुझे बहुत ख़ुशी हुई उनके बारे में जानकार. हो सके तो यह सन्देश उनतक ज़रूर पहुंचाइए..... धन्यवाद!!!
जवाब देंहटाएंशकील भाई के जज्बे को सलाम . उनका कार्य प्रसंसनीय और बधाई के काबिल है. उनके जैसे ही प्रेरणास्रोत होने चाहिए समाज के..
जवाब देंहटाएंशकील भाई के जज्बे को सलाम, शायद ऐसे ही लोगों से समाज ज़िंदा है
जवाब देंहटाएंसलीम भाई ने जो कुछ किया वैसी मिसालें बहुत कम मिलेंगी। लेकिन क्या सरकार को शर्म नहीं आती क्या कि उस के कामों को जनता कर रही है। सरकार पर ऐसे कामों को करने के लिए भी दबाव बनाया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंIs Jajbe ko salam !!
जवाब देंहटाएं...फिर भी लोग आजमगढ़ को आतंकगढ़ कहते हैं. ऐसी सकारात्मक बातों को तवज्जो देने की जरुरत है .शकील जी को इस अनुपम कार्य के लिए ढेरों मुबारकवाद.
जवाब देंहटाएंyour work is unbelivable. i just want to salute you
जवाब देंहटाएंhatsoff to shakeel bhai
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