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सोमवार, जनवरी 31, 2011

आजमगढ़ का पल्हना मंदिर (माँ पल्हमेश्वरी देवी सिद्ध पीठ)

माँ पल्हमेश्वरी देवी जी (पल्हना मंदिर) के नाम से जन जाने वाला देवी दुर्गा जी का सिद्ध पीठ जिला आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में स्थित है यह वाराणसी (बनारस) से ८२ किलोमीटर दूर है आप को इस स्थान के दर्शन के लिए वाराणसी से सीधे आजमगढ़ वाली बस पकड़ के लालगंज (मासिरपुर मोड़) उतरना होगा या आप बस वाले को बोलेंगे की माँ पल्हमेश्वरी के दर्शन को जाना है तो वो ख़ुद ही आपको लालगंज (मासिरपुर मोड़ ) पर उतार देगा वहा से सीधे ही जीप या ऑटो जाते है मसिरपुर मोड से तरवा मार्ग पर मात्रा १५ किलोमेटेर पर माँ भगवती का सिद्ध पीठ स्थान है यहा के जो ब्राह्मण है वो भारथिपुर गॅव के है जो माँ के मंदिर से मात्रा ३ किलोमीटेर पर है वो ही माँ भगवती का शृंगार करते है,पूजा अर्चना करते है,प्रातः काल एवम् संध्या के समय आरती करते है इन ब्राह्मणो के पूर्वजों को माँ भगवती ने सपने मे दर्शन दिया और कहा की तुम मेरी इस जगह पर पूजा करो, मेरा तुम मंदिर बनवओ मेरा यश अपने आप बढ़ेगा, महामाई बोली मै तुम्हारे वंश का कल्याण करूँगी और युग युगांतर तक तुम्हारे वंश के लोग ही मेरी पूजा का लाभ प्राप्त करेंगे और उनका उद्धार होगा, यह वो ही स्थान है जहा माँ भगवती के चरणो का उपर का हिस्सा पिंडलियो वाला (पालथी) गिरी थी जब मथुरा नरेश कंस ने देवकी के आठवे संतान के जन्म की सूचना मिली तो वह काराग्रह मे गया और देखा की ये आठवी संतान तो लड़का नहीं पैदा हुआ लड़की पैदा हूई है तो वह सोचा की ये जरुर् भगवान विष्णु की चाल है इस कन्या को मारना उचित होगा और उसने उस कन्या को जब हाथो मे पकड़ कर पत्थर पर पटकना चाहा तो वह देवी रूपी कन्या कंस के हाथो से उड़ कर आसमान मे जाकर आकाशवाणी की हे कंस तू मुझे क्या मरेगा जो तुझे मरने वाला है वो तो इस पर्थ्वी पर पैदा भी हो चुका है और फिर देवी माँ खंड खंड रूप मे विभाजित हो गई और जहा जहा जो जो अंग गिरा वो सिद्ध पीठ के रूपो मे पूजा जाता है उन स्थानो मे विंध्याचल (मिर्जापुर) , चौकियाँ माई ( जोनपुर,उत्तर प्रदेश ) आदि .... और भी सिद्ध पीठ स्थान है उन्ही मे से एक माँ पलह्मेश्वरी देवी (सिद्ध पीठ) भी है यहा जो माँगो वो मिलता है यह एक सच्चा दरबार है यहा माँ दरबार मे दोनो नवरत्रो मे भारी संख्या मे भीड़ लगती है .

पल्हना मंदिर के पुजारी ब्रह्मण संघ के सोजन्य से (09899890924)

शुक्रवार, जनवरी 28, 2011

आजमगढ़ का नायक : शकील भाई

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।' अल्लामा इकबाल के इस शेर का इस्तेमाल अमूमन खास लोगों की हौसला-आफजाई के लिए होता है। यही शेर लाहीडिहां बाजार भटवां की मस्जिद में भी एक पान की दुकान पर सुनने को मिला। तभी सुनने वालों में से ही किसी ने पूछ लिया- इसका कद्रदां कौन है? सुनाने वाले ने भी देरी नहीं की और एक सामान्य कद-काठी के दाढ़ी वाले बंदे को पकड़ लाया और बोला-ये हैं शेर के असली कद्रदां-तोआं गांव के शकील भाई।

तोआं आजमगढ़ जिले के सरायमीर थाने का एक गांव है। सरायमीर का जिक्र पिछले कुछ वर्षों में राष्ट्रीय स्तर पर इस रूप में होता रहा है कि यहां बम धमाकों के सबसे ज्यादा आरोपी पकड़े गये हैं। भटवां की मस्जिद पर मिले लोग कहते भी हैं कि 'आजमगढ़ में आतंक की तो चर्चा सब जगह है, लेकिन इसी जिले में शकील भाई ने अकेले दम पर एक पुल का निर्माण, दूसरे के आधे से अधिक का काम पूरा कर और तीसरे की बनाने की योजना तैयार कर जो साहस दिखाया है उसकी चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी दिखा रही है।'

बगैर किसी सरकारी सहायता के सिर्फ चंदा मांगकर पिछले दस वर्षों के अकथ प्रयास से शकील भाई ने जो कर दिखाया है, उसे सुनकर एक दफा आश्चर्य लगता है। चंदा मांग कर धार्मिक स्थल और स्कूल बनाने की परंपरा तो रही है लेकिन पुल भी चंदा मांग कर बन सकता है, ऐसा सोचना मुश्किल लगता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश के सांप्रदायिक सौहार्द वाले जिलों में हमेशा अव्वल रहे आजमगढ़ में फिर एक बार गंगा-जमुनी संस्कृति को हंगामा मचाये बिना ही शकील भाई ने समृध्द किया है।

जिला मुख्यालय से मात्र 40 किलोमीटर की दूरी पर मगही नदी पर बने इस पुल को शकील सामाजिक सहयोग की देन मानते हैं। लगभग 50 गांवों को आपस में जोड़ने वाले इस पुल ने दर्जन भर गांवों की जिला मुख्यालय और थाने से दूरियों को कम किया है। पुल ही बनाने की योजना शकील ने क्यों हाथ में ली ? इसके पीछे एक दिल को छू देने वाली घटना है। लेकिन इससे पहले शकील मीडिया को लेकर शिकायत करते हैं कि 'जिला-जवार के दलालों की खबरों को तो पत्रकार बंधु तवज्जो देते हैं मगर अच्छे कामों पर एक बूंद स्याही खर्च करने में कोताही क्यों बरतते हैं। खुफिया और सरकारी बयानों को सच की तरह पेश करने वाली मीडिया ने बाहर वालों के लिए कुछ ऐसी बना दी है कि लोग मानने लगें कि यहां के मुसलमानों में ही कुछ नुक्स है।'

जिस तरह पुल अपने ऊपर से गुजरने वालों की जाति-धर्म से मतलब नहीं रखता, वैसे ही शकील भाई भी सिर्फ इंसानी पहचान के ही पैरोकार हैं। टौंस नदी पर बन रहे पुल का काम कराने में व्यस्त शकील भाई से हुई मुलाकात में पूछने पर कि आपने पुल बनाने की शुरूआत कैसे की? वे कहते हैं, 'वैसे तो यह किस्सा हर कोई बता सकता है लेकिन मेरे साथ बस इतना हुआ कि मैं उस किस्से का होकर रह गया. मैंने उससे मोहब्बत कर ली।'

बरसात का मौसम था और मगही नदी उफान पर थी। सरायमीर जाने का एकमात्र आसान रास्ता नदी पार करना ही था। साल के बाकी नौ महीनों में तो बच्चे चाह (बांस का पुल) पार कर स्कूल जाया करते थे लेकिन बरसात में पार करने का जरिया नांव ही हुआ करती थी। उस दिन भी बच्चे इस्लहा पर पढ़ने जा रहे थे। नांव में बारह बच्चे सवार थे और नांव नदी के बीचो-बीच उलट गयी। सुबह का समय होने की वजह से उसपार जाने वालों की तादाद थी इसलिए बारह में से ग्यारह बच्चे बचा लिए गये, लेकिन शकील के गांव के सैफुल्लाह को नहीं बचाया जा सका। उस समय षकील सउदी अरब में नौकरी कर रहे थे। शकील उन दिनों को याद कर बताते हैं, 'जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे बेचैनी छा गयी। मुझे लगता था कि कोई मुझसे हर रोज कहता है कि गांव जाते क्यों नहीं।'

बकौल शकील, 'उसके छह महीने बाद जब मैं घर आया तो मानो किसी ने कहा हो कि क्यों नहीं एक पुल ही बनवा देते, लेकिन मेरी मासिक आमदनी कुछ हजार रूपये थी और पुल बनाने के लाखों रूपये वाले काम को हाथ में लेना संभव नहीं लगा। लोगों से बात करने, सुझाव लेने और आत्मविश्वास हासिल करने में दो साल और लग गये। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर अकेले ही चंदा मांगना शुरू किया। बहुतों ने कहा कि कमाने-खाने का धंधा है। चीटर तक कहा, लेकिन मैंने न किसी का जवाब दिया और न ही आरोपों से आहत हुआ। मुझे अपनी नियत पर भरोसा था। अल्लाह को गवाह मानकर पुल बनाने की योजना पर आगे बढ़ गया। यहां आसपास के गांवों से सहयोग लेने के बाद मुंबई, दिल्ली, गुजरात ही नहीं दुबई जाकर भी मैंने चंदा जुटाया।'

चंदा के अनुभवों को साझा करते हुए शकील से पता चला कि कुछ ने दिया तो कुछ ने दुत्कार दिया। मददगारों में सबसे अधिक मदद गुजरात के वापी शहर के रहने वाले 85 वर्षीय हाजी इसरानुलहक ने की और कर रहे हैं। शकील के शब्दों में कहें तो 'हाजी साहब को तहेदिल से शुक्रिया करता हूं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर भरपूर मदद की। साथ ही मैं इंजीनियर संजय श्रीवास्तव की चर्चा करूंगा जो कि मेरे दोस्त भी हैं, जिन्होंने एक पाई लिये बगैर हमेशा सहयोग दिया।'

शकील यह बताना नहीं भूलते कि हाजी साबह ने कभी इसको रत्तीभर भी भुनाने की कोशिश नहीं की। आग्रह करके हम गांव वालों ने उन्हीं से बन चुके पुल का शिलान्यास भी कराया और अब इरादा है कि उस पुल का नाम सैफुल्ला के नाम पर रखें, जिसकी नदी में डूबने से मौत हो गयी थी। राजापुर गांव के मतीउद्दीन बताते हैं कि 'सैफुल्ला रिश्ते में सलीम का कुछ नहीं लगता था फिर भी उसने जो संकल्प लेकर किया उससे हजारों सैफुल्लाओं के परिजन हमेशा शकील को सलाम करेंगे, दुआएं देंगे।'

सामाजिक दायरे के अलावा क्या किसी और ने मदद की? इस पर शकील हंसते हुए कहते है,'सरकारी विभागों से हमने कई दफा मदद की दरख्वास्त की। सांसदों-विधायकों के यहां गुहार लगाने गये। प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव के यहां भी गांववाले लेकर गये, पर बात नहीं बनी। इतना ही नहीं, मेरी आर्थिक और पारिवारिक औकात जानने के बाद तो मौके पर जगहंसाई भी करते थे। समाज के संभ्रात लोगों का यह रवैया देखकर मन भारी और थका हुआ महसूस करता था। कई दफा लगा कि पीछे हट जायें। लेकिन हताशा का विचार आते ही बचपन से जवानी तक सुने साहस के किस्से-कहानियों से मुझे बल मिलता था। अपने बुजुर्गों से सुने उन साहसिक कहानियों की यादों के साथ, वह पल भी याद कर मन ख़ुशी से भर उठता था जब कहानियों के नायक या नायिका लाख मुश्किलों के बावजूद संघर्ष के मुकाम तक पहुंचते थे।'

शकील के इस उम्दा प्रयास में गौर करने लायक बात यह है कि जिस समाज ने एक समय में इन्हें दुत्कारा, उसी समाज के कुछ लोगों ने शकील भाई की मदद भी की और आगे चलकर हाथों-हाथ लिया। इसलिए शकील कहते भी हैं कि 'पुल निर्माण सामाजिक सहयोग के बदौलत ही संभव हो पाया।' लगभग 60 लाख से ऊपर धनराशी खर्च हो चुकी है। यह पूंजी एक ऐसे आदमी ने जुटायी, जिसका न कोई सामाजिक रूतबा था और न ही कोई पारिवारिक रसूख। उसके पास ढंग का रोजगार तक नहीं था।

द पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित और जनज्वार से साभार

मंगलवार, जनवरी 11, 2011

भोजपुरी लोकगायक बालेश्वर यादव नहीं रहे !

* निक लागे तिकुलिया गोरखपुर के
* मनुआ मरदुआ सीमा पे सोये , मौगा मरद ससुरारी मे.
* कजरा काहें न देहलू

                   अगर  आपो लोगन में से केहू ई गाना के ऊपर मस्ती से झुमल होखे या ई गाना कै शौक़ीन रहल होये तै अब ई आवाज अब कबहू न सुनाई देई. काहें से की ई मशहूर गाना  कै  गवैया बालेश्वर यादव जी अब ई दुनिया से जा चुकल बटे.
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                     बीते रविवार  ०९  जनवरी २०११ को इन्होने लखनऊ  के श्यामा प्रसाद  मुखर्जी अस्पताल में आखिरी साँस ली , जहाँ  ये कुछ समय से इलाज के लिये भर्ती थे. सन १९४२ में आजमगढ़ - मऊ क्षेत्र के मधुबन  कस्बे के पास चरईपार गाँव में जन्मे, बालेश्वर यादव भोजपुरी  के मशहूर बिरहा और लोकगायक थे.
                    अई...रई... रई...रई... रे  , के विशेष टोन से गीतों को शुरू करने वाले बालेश्वर ने अपने बिरहा और लोकगीतों के माध्यम से यू. पी.- बिहार समेत पूरे  भोजपुरिया समाज के दिलों पर वर्षों तक राज किया. वे जन जन के ये सही अर्थों में गायक थे. इनके गीत " निक लागे तिकुलिया गोरखपुर के " ने एक समय पुरे पूर्वांचल में काफी धूम मचाई थी.जन जन  में अपनी गायकी का लोहा मनवाने वाले इस गायक पर मार्कंडेय जी  और कल्पनाथ राय जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञों की नज़र पड़ी तो तो यह गायक गाँव- गाँव की गलियों से निकलकर  शहरों में धूम मचाने लगा और कल्पनाथ राय ने  अपने राजनितिक मंचों से  लोकगीत गवाकर इन्हें  खूब सोहरत दिलवाई. बालेश्वर यादव २००४  में देवरिया के पडरौना लोकसभा सीट से कांग्रेस  पार्टी के टिकट पर जीतकर लोकसभा में भी पहुंचे.
                 इनके गाये गानों पर नयी पीढ़ी के गायक गाते हुए आज मुंबई में हीरो बन प्रसिद्धि पा  गये  , मगर ये लोकगायक इन सबसे दूर एक आम आदमी का जीवन जीता रहा. ये आम लोंगों के  गायक थे और उनके मन में बसे थे. अभी हाल में ही आजमगढ़ के रामाशीष बागी ने महुआ चैनल के सुर संग्राम में इनके गाये गीतों पर धूम मचा दी थी.  
            भोजपुरी के उत्थान और प्रचार  - प्रसार  में इनका महत्वपूर्ण  योगदान  है  . इनके गीत न केवल  अपने देश  में ही प्रसिद्ध  हुए बल्कि जहाँ भी भोजपुरिया माटी  के लो  जाकर  बस  गए , वहाँ   भी इन्हें गाने  के लिये बुलाया  जाता  रहा. इन्होने अपने भोजपुरी गीतों का डंका सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, मारीशस, फिजी, हौलैंड इत्यादि देशो में भी बजाया  . सन १९९५ में बालेश्वर यादव को उत्तर प्रदेश की सरकार ने  लोक-संगीत में अतुलनीय योगदान हेतु ' यश भारती सम्मान 'से सम्मानित किया था. 

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शनिवार, जनवरी 08, 2011

भोजपुरी लघु कथा--छलिया प्रेमी

 सुबह जब  बुढाये   के साँझ के गोदी  सोवै  जात रहल तै वो बेला में रजमतिया के खेत के मेडी से गुजरत देख मिसिर के लौंडा रतन  के मन मचल गएल . आपन इशारा से रतन रजमतिया के मकई  के खेते में बुलावनै .
" ना बाब ना ,  केहू देख लेई तै का होई  " रजमतिया सकुचात  आपन बात कही के भागे  लागल.
" अरे नाहीं रे केहू देखि लेई तै का हो जाई. हम तै तोहरा से  पियार  करी  ला " रतन आपन  बाहीं कै सहारा देत रजमतिया से बोलनै.
" अगर कुछो गड़बड़ भई गयेल तब "
" तब का हम तोहरा से वियाह कई लेबी "
" अऊर  अगर जात बिरादरी कै चक्कर पड़ी गयेल तब "
" हम अपने साथै तुहके शहरवा भगा ले चालब ना........ " रतन रजमतिया के अपने  पहलु में समेटत कहने .
रजमतिया भी अब एतना आसरा  पाके मन से  गदगद हो गइल  और अपने भविष्य कै सपना सजावत   समर्पण कै दिहले.
कुछे देर बाद मिसिर बाबा अपने खेते के निगरानी बदे  वहां से गुजरने तै कुछ गड़बड़ कै आशंका तुरंते भाप  चिल्लैनन " कौने हई रे खेतवा में.. .. आज  लगत बाये कुल मकई टुटी  जाई ."
उधर रजमतिया के गाले  पै  रतन कै थप्पड़ पड़ल और चिलाये के कहनै ," दौड़िहा  बाबू जी हम रजमतिया के पकड़ लिहले बानीं ."  इ ससुरी आज मकई तोरै बदे खेत में घुसल रहे , " रजमतिया के तनिको  ना समझ  में आवत  की ई   का  होत बाये. मगर रतानवा  सब  समझ  गयेल रहेल की   अब  रजमतिया के ही चोर   साबित  कईके उ  रजमतिया से पीछा  छुड़ा  सकत  हवे . काहें के  की अब रजमतिया के भोगले के बाद अब उमें रतन कै तनिको इच्छा ना रही गएल रहल .  अऊर इसे उ बिल्कुले पाक साफ बच जात रहने अपने बाप    के नज़र मे.
फिर  तै  मिसिर  बाबा अऊर    रतन   दोनों  रजमतिया पै सोंटा और लात - घुसन    कै बौछार कई देहेनें. इधर रजमतिया छलिया प्रेमी के ठगल बस देखत रही गएल.
उपेन्द्र " उपेन "