हल !
कि जिसकी नोक से
बेजान धरती खिल उठती
खिल उठता सारा जंगल
चांदनी भी खिल उठती......
गिरिजा कुमार माथुर की लिखी " ढाकबनी " कविता की ये चंद पंक्तियाँ जिस हल के महत्व को बखूबी बयां कर रही है उसे आज किसान दीवाल पर टांग शहरों कि तरफ मजदूर बनाने के लिये पलायन करता जा रहा है. कहा जाता है भारत गाँवों का देश है और उसकी आत्मा गाँवों में निवास करती है. देश की करीब अस्सी प्रतिशत जनसंख्या गावों में निवास करती है. ये गाँव ही भारतीय अर्थवयवस्था के रीढ़ की हड्डी है और शहरों के विकास का रास्ता इन्हीं गाँवों से होकर जाता है. मगर भारतीय गाँव आज इतने पिछड़े हुए क्यों है ? क्यों इनके विकास के लिये उचित प्रयास नहीं हुए ? ग्राम्य विकास में अडचने क्या है ? ना जाने कितने सवाल जेहन में घूम जाते है. आज आवश्यकता है गाँवों को उनके फटेहाल और गिरी हुई हालत से निकालकर एक समृद्धि और उन्नत बनाने क़ी. गाँव सदियों से ही शोषण और दासता के शिकार रहे है. अंग्रेजी शासन काल में इन गावों की दशा पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया, उस समय जमींदारों और सेठ- साहूकारों ने खूब जमकर जनता का शोषण किया. स्वतंत्र प्राप्ति के बाद भी इसमें कुछ सुधार नहीं हुए और हमारे राजनेता इसे बखूबी जारी रख अपना पेट और घर भरते रहे.
आर्थिक और सामाजिक संकरण कुछ ऐसे बुने गये की विकास के ज्यादातर प्रयास सिर्फ शहरों तक ही सीमित रह गयें. जहाँ शहरों में ऊँची- ऊँची अट्टालिकाये और फ्लैट बनते गये , अय्यासी और मौज मस्ती के सारे साधन मौजूद होते गये वहीं गाँव मूलभूत सुविधाओं से भी महरूम हैं
भारत कृषि प्रधान देश है फिर भी किसानों को उन्नत किस्म के कृषि यन्त्र और खाद्य सही समय पर नहीं मिल पाते. अगर थोड़ा बहुत कुछ प्रयास हुए भी तो वह जरुरतमंदों को कम जुगाड़ू लोगों तक ज्यादा पहुंचे. महंगे कृषि के आधुनिक यन्त्र गरीब जनता उठा नहीं सकती इसलिए आज भी कृषि बैल और जैविक खाद्यों पर आश्रित है.
कृषि पूरी तरह से मानसून पर निर्भर है. जिस साल सही समय पर मानसून आ गये उस साल तो ठीक है वरना सब बर्बाद. सिंचाई के दूसरे साधन जैसे नहर, कुवाँ ,और तालाब हर जगह उपलब्ध नहीं होते . इसका परिणाम ये होता है कि कहीं फसलें पानी के बिना सुख जाती है तो कहीं पानी में डूबकर नष्ट हो जाती है. ऐसे में सिंचाई के पारंपरिक साधन जैसे कुवाँ ,और तालाब भी धीरे धीरे अब खात्मा होने लगे है. तालाब अब पट चुके है उनपर दबंगों का कब्ज़ा है. इन पारंपरिक साधनों जैसे कुवों तालाबों और नहरों को फिर से खोदकर बंजर जमीनों को फिर से हरा भरा किया जा सकता है.
गाँव शिक्षा के क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए है. प्राथमिक विद्यालयों की हालत तो सबसे ख़राब है. इसके अध्यापक गण ज्यादातर दायित्वहीन, अकर्मण्य और आलसी होते है. उनका मन स्कूल में कम और अपने घर- गृहस्थी में ज्यादा रहता है. वे खुद शहरों में रहकर अपने बच्चों को पब्लिक स्कूलों में पढ़ना पसंद करते है और प्राथमिक विद्यालयों को सिर्फ एक आफिस से ज्यादा न समझते हुए आकार ड्यूटी बजा कर चले जाते है. महिला शिक्षक तो स्वीटर बुनाई और बातों में ही ड्युटी पूरी कर लेती है. मजाल जो कोई कुछ बोल दे, वरना मियाँ जी हाजिर हो जायेगे दल बल के साथ.
आज गाँव शिक्षा के क्षेत्र में काफी पिछड़े हुए है. शिक्षा के लिए उच्च संस्थानों की कमी है. ऊँचीं शिक्षा के लिये शहरों का ही रुख करना पड़ता है. ग्रामीण लड़के तो किसी तरह शहरों का रुख कर लेते है मगर ग्रामीण लडकियाँ आज भी इससे वंचित रह जातीं है और या तो उनकी पढ़ाई छुट जाती है या फिर प्राईवेट बी. ए. करना पड़ता है. कहीं- कहीं स्कूल इतने दूर होते है की माँ बाप चाहकर भी अपने बच्चियों को सिर्फ इसलिए स्कूल नहीं भेज पाते की स्कूल आना जाना आसान नहीं होता. गावों में स्वास्थ्य की भी समुचित व्यवस्था नहीं है. यहाँ ज्यादातर लोग झोला छाप डाक्टरों के भरोसे ही रहते है क्योकि सरकारी चिकित्सालय नाममात्र के ही है और हर जगह उपलब्ध नहीं होते . और जो है भी उसे नर्स और दाई ही ज्यादातर सम्हाले हुए है. डाक्टर लोग अक्सर शहर में अपनी प्राईवेट प्रेक्टिस में ही व्यस्त होते है. ऐसे में झोलाछाप डाक्टर अपनी अज्ञानता के चलते बीमारी को और बढ़ा देते है और ऊपर से पैसे तो ऐठते ही है. अगर दवा किस्मत से क्लिक कर गयी तो ठीक वरना गरीब जनता को फिर शहरों की तरफ ही भागना पड़ता है.
बिजली की कमी गावों की एक बड़ी समस्या है. पर्याप्त बिजली न मिल पाने से किसान अपना कृषि कार्य समय पर नहीं कर पाते. बिजली कर्मचारियों से मिली भगत कर बिजली चोरी बदस्तूर जारी है. शाम होते ही कटिया लग जाना आम बात है. टूटी फूटी सड़के भी गाँवों की एक समस्या है. आवागमन के साधन भी काफी कम है. गावों को अगर सड़क, स्वास्थ्य, बिजली, शिक्षा और पानी की समस्याओं से आज निज़ात दिला दी जाये तो यहाँ का शांत, खुला और मनोरम वातावरण शहरों की धुल-धक्कड़ , भाग - दौड़ और तंग वातावरण की जगह कितना अच्छा हो जाता . अंत में पं. सुमित्रा नंदन 'पन्त' की ये कविता , जो इन गावों और उनके निवासियों का सच्चा और स्वाभाविक चित्र अंकित करती है .:-
भारत माता ग्राम वासिनी !
खेतों में फैला है , स्यामल धूल भरा मैला सा आँचल
गंगा-यमुना के आंसू जल , मिटटी की प्रतिमा उदासिनी
भारत माता ग्राम वासिनी !
ये तस्वीर आधुनिक भारत के एक गाँव में बिजली नहीं होने पर हरिकेन लेम्प के उजाले में बर्थडे मानते हुये की है.............
उपेन्द्र ' उपेन '
आज के परिवेश में महत्वपूर्ण सवाल उठाया आपने...आभार.
जवाब देंहटाएंआज के परिवेश में महत्वपूर्ण सवाल उठाया आपने...आभार.
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